• Misyar Marriage

    is carried out via the normal contractual procedure, with the specificity that the husband and wife give up several rights by their own free will...

  • Taraveeh a Biad'ah

    Nawafil prayers are not allowed with Jama'at except salatul-istisqa' (the salat for praying to Allah to send rain)..

  • Umar attacks Fatima (s.)

    Umar ordered Qunfuz to bring a whip and strike Janabe Zahra (s.a.) with it.

  • The lineage of Umar

    And we summarize the lineage of Omar Bin Al Khattab as follows:

  • Before accepting Islam

    Umar who had not accepted Islam by that time would beat her mercilessly until he was tired. He would then say

Friday, September 30, 2011

Umars Bid'ah in Magrib & Isha Prayers

Malek-ul-ulama has mentioned in his book, Badaye-wa-Sanaye:

'Umar left out reciting of Sura-e-Fateha and Sura in one of the Magrib prayers, and he recited them in the last part of Isha Prayers loudly! So, Usman also left out reciting of Sura-e-Fateha and Sura in one of the Magrib Prayers and he recited them in the last part of Isha Prayers.

He has written in another source: 'Usman left out reciting of Sura-e-Fateha and Sura in the first two Rakah of the Isha Prayers, and he recited them in the third and fourth rakats. (Malek-ul-ulama's Badaye-wa-Sanaye, v.1, p.111& 172, and Al-Ghadir, v.8, p.173)

This kind of doing Namaz (Salat) is not accepted by any branches of Islam, and without any doubt it is a heresy. About how to offer Namaz, there are many narrations and hadiths in Sunnis' and Shias' book, and here we refer to one on them: Ebadet ibn Samet has quoted from the Prophet (peace be upon him):

'If a person offers Salaat and does not recite Sura-e-Fateha and Sura, his Salat will not be accepted by Allah.'

(Beihaghi's Sunan, v.2, p.38 &61, Nisaee's Sunan, v.1, p.34, Bukhari's Sahih, v.1, p.302, Muslim's Sahih, v.1, p.155, Abu Davood's Sahih, v.1, p.131, Tarmazi's Sunan, v.2, p.137, Daremi's Sunan, v.1, p. 283, Ibn Maja's Sunan, v.1, p.276, Ahmad's Musnad, v.5, p.314, Ketab-ul-um, v.1, p.93,…)

Umar travelled to Damascus during Namaz!

It has been quoted that one night Umar was doing Maghrib prayers with others, but he did not say anything. After finishing of Salaat, people asked him (in some narrations, they asked: 'Did you offered your Salaat in your thought silently?!) Umar answered that he traveled to Damascus in his mind. Of course, later he decided to pray the Salaat again.

(Beihaqi's Sunan Kubra, v.2, p.1382)

If an ordinary imam of Salaat did this action, would you pray behind him again?

Saturday, September 24, 2011

کرامات عمر بن خطاب در كتب اهل سنت - صداي عمر از مدينه تا فسا رسيد

صداي عمر از مدينه تا فسا رسيد

اين قصه آن قدر معروف است كه حتي كتاب‌هاي لغت نيز آن را نقل كرده‌اند . ما آن را از كتاب البداية و النهاية ابن كثير نقل مي‌كنيم :

ذكر سيف عن مشايخه أن سارية بن زنيم قصد فسا و دار أبجرد فاجتمع له جموع ـ من الفرس و الأكرادـ عظيمة و دخم المسلمين منهم أمر عظيم و جمع كثير، فرأي عمر في تلك الليلة فيما يري النائم معركتهم و عددهم فخاوفت من النهار و أنهم في صحراء و هناك جبل إن اسندوا اليه لم يؤتوا ألاّ من وجه واحد. فنادي من الغد الصلاة جامعة، حتي اذا كانت الساعة التي رأي أنهم اجتمعوا فيها، خرج الي الناس و صعد المنبر، فخطب الناس و أخبرهم بصفة ما رأي، ثم قال: يا سارية! الجبل الجبل!!! ثم اقبل عليهم و قال ان الله جنودا و لعل بعضها أن لم يبلغّهم. قال: ففعلوا ما قال عمر، فنصرهم الله علي عدوهم و فتحوا البلد.

جناب عمر بن خطاب در مدينه مشغول خواندن خطبه نماز جمعه و آيات قرآن را مي خواند؛ يك دفعه سه مرتبه گفت: «يا ساريه الجبل»، همه ماندند كه چه اتفاقي افتاده؛ بعد از نماز از او پرسيدند كه چه شد وسط خطبه اين چنين گفتي؟ گفت: در حين خطبه خواندن، يك نگاهي كردم به ملكوت زمين و زمان، ديدم لشكري كه براي فتح نهاوند فرستاديم، دشمنان از 4 طرف مي خواهند محاصره كنند و آنها را از بين ببرند، فرمانده شان آقاي ساريه بود، او را صدا زدم كه بيائيد به طرف كوه و از يك طرف با دشمن بجنگيد، تا آنها از 4 طرف حمله نكنند؛ آنها هم آمدند به سمت كوه و جنگيدند. بعد از 3 ماه كه لشكر آمد به مدينه، سؤال كرديم كه آيا اين قضيه را شما هم ديديد؟ گفتند: بله، در فلان روز در بيابان نهاوند بوديم كه صداي آقاي عمر در فضا طنين انداز شد و همه لشكر هم صداي او را شنيدند و او از مدينه صدا زد: «يا ساري الجبل»، و اگر صداي عمر نبود، همه از بين رفته بوديم و اين پيروزي هم نصيب اسلام نمي شد
البداية و النهاية، ج7، ص94، قصه جنگ فسا و المغني ، عبد الله بن قدامه ، ج 10 ، ص 552 و الشرح الكبير ، عبد الرحمن بن قدامه ، ج 10 ، ص 387 و فيض القدير شرح الجامع الصغير ، المناوي ، ج 4 ، ص 664 و تفسير الرازي ، الرازي ، ج 21 ، ص 87 و دقائق التفسير ، ابن تيمية ، ج 2 ، ص 140 و أسد الغابة ، ابن الأثير ، ج 2 ، ص 244 و الإصابة ، ابن حجر ، ج 3 ، ص 5 – 6  و تاريخ اليعقوبي ، اليعقوبي ، ج 2 ، ص 156 و الكامل في التاريخ ، ابن الأثير ، ج 3 ، ص 42 – 43 و تاريخ الإسلام ، الذهبي ، ج 1 ، ص 384 و تاريخ ابن خلدون ، ابن خلدون ، ج 1 ، ص 110 و تاج العروس ، الزبيدي ، ج 16 ، ص 327 .

Friday, September 2, 2011

सहाबा के बारे में वहाबियों का अक़ीदा

अलिफ़: पहले ये साबित किया जा चुका है कि वहाबी अक़ाइद के मुताबिक़ अक्सर सहाबा या काफ़िर हैं या मुशरिक! और इस में वो तमाम सहाबा शामिल हैं जो पैग़ंबर(स) की वफ़ात के बाद आप (स)से शफ़ाअत तलब करते थे और आप की क़ब्रे मुबारक की ज़ियारत के लिए जाते थे या उसे जायज़ समझते थे, या दूसरों को ये आमाल अंजाम देते हुए देखते, मगर बेज़ारी का इज़हार नहीं करते थे, हत्ता कि जो लोग इस के जवाज़ के क़ाइल थे और वह उन्हें काफ़िर या मुशरिक और उन की जान-ओ-माल वग़ैरा को हलाल नहीं क़रार देते थे वो भी इसी हुक्म में हैं!!

ये बात वहाबी अक़ाइद का लाज़िमा है और उन का मौजूदा नज़रिया भी यही है।

लेकिन ये लोग अपनी बातों के दौरान सहाबा का जो एहतेराम करते हुए दिखाई देते हैं, दरहक़ीक़त इन बातों के ज़रीया ये लोग सादा लौह अवाम को फ़रेब देते हैं क्योंकि उन के सामने ये अपना असल अक़ीदा बयान करने से डरते हैं लेहाज़ा उन के ख़ौफ़ की वजह से सहाबा की तकफ़ीर के मसले को सही अंदाज़ से बयान नहीं करते ।

ब: वहाबियों ने पैग़ंबर(स) के बाद ज़िंदा रह जाने वाले सहाबा को ही निशाना नहीं बनाया बल्कि आनहज़रत (स) की हयात तय्यबा में आप के साथ रहने वाले सहाबा-ए-किराम भी उन की गुस्ताख़ियों से महफ़ूज़ ना रह सके. बानी वहाबीयत मुहम्मद बिन अब्दुल-वह्हाब के ये अलफ़ाज़ मुलाहिज़ा फ़रमईए:

अगरचे बाअज़ सहाबा आँहज़रत (स) की रकाब में जिहाद करते थे, आप के साथ नमाज़ पढ़ते थे, ज़कात देते थे, रोज़ा रखते थे और हज करते थे फिर भी वो काफ़िर और इस्लाम से दूर थे!! [अलरसाइल अलामली अलतसा, मुअल्लिफ़ा मुहम्मद बिन अब्दुल-वह्हाब, रिसाला-ए-कशफ़ अलशुबहात, स१२०, मतबूआ १९५७)

ज: सहाबा के बारे में वहाबियों के इस अक़ीदे की ताईद इन चीज़ों से भी होती है जो उन के उल्मा और क़लम कारों ने यज़ीद की तारीफ़ और हिमायत में तहरीर किया है। जब कि तारीख़ में यज़ीद जैसा, सहाबा का और कोई दुश्मन नहीं दिखाई देता जिस ने सहाबा की जान-ओ-माल और इज़्ज़त-ओ-आबरू को बिलकुल हलाल कर दिया था नीज़ यज़ीद जैसा और कोई ऐसा शक्की नहीं है जिस ने तीन दिन तक अपने लश्कर के लिए (वाक़िया हरा में) मदीने के मुसलमानों की जान-ओ-माल और आबरू, सब कुछ हलाल करदी हो।

चुनांचे तीन दिनों के अंदर मदीने में जो लोग भी मारे गए वो सहाबा या उन के घर वाले ही थे और जिन औरतों और लड़कीयों की इज़्ज़त ताराज की गई इन सब का ताल्लुक़ भी सहाबा के घरानों से ही था. यही वजह है कि आइन्दा साल मदीना की एक हज़ार कुंवारी लड़कीयों के यहां ऐसे बच्चों की विलादत हुई जिन के बाप का कुछ पता ही नहीं था।

वाक़िया हरा (हर्रा) से पहले यज़ीद की सब से बड़ी बरबरीयत कर्बला में सामने आई जब उस ने ख़ानदाने रिसालत-ओ-नबुव्वत की अठारह (१८) हस्तीयों को तहे-तेग़ कर डाला जिन के दरमियान आँहज़रत (स) के प्यारे नवासे और आप के दिल के चैन हज़रत इमाम हुसैन(अ.) नीज़ उन के बेटे, भतीजे और दूसरे आज़ा-ओ- अक़रुबा, हत्ता कि ६ महीने का शीर ख़्वार बच्चा भी था।

यज़ीद का एक बड़ा जुर्म ये भी है कि इस ने मक्का-ए-मुकर्रमा पर हमला कर के ख़ाना-ए-काअबा में आग लगवाई।

जी हाँ!

वहाबी हज़रात इसी यज़ीद के क़सीदाख़्वां हैं! अब इस का राज़ क्या है ? ये कौन बताए!।

हो सकता है (शायद) सहाबा और उन की औरतों और बच्चों के ऊपर ज़ुल्म-ओ-तशद्दुद और उन के साथ इस नारवा सुलूक की बिना पर ही ये लोग यज़ीद की तारीफ़ करते हों!! ...

मज़ीद ताज्जुब ये है कि! यज़ीद नमाज़ नहीं पढ़ता था और शराब पीता था।।।।।। और फ़िक़्हे इमाम अबू हनीफा के मुताबिक़ (वहाबी हज़रात जिस पर अमल पैरा होने के मुद्दई हैं) उन्हें उस की सिर्फ ईसी हरकत की बिना पर उसे काफ़िर क़रार दे देना चहिए मगर वो फिर भी उस की तारीफ़ करते हैं और उसे माज़ूर क़रार देते हैं।

आख़िर क्या वजह है? कि यज़ीद की इन तमाम हरकतों को जानने के बावजूद ये लोग उसे कुछ नहीं कहते? बल्कि उस की तारीफ़ करते हैं, मगर जिन लोगों ने क़ब्रे पैग़ंबर(स) से शफ़ाअत तलब करली या वो आप की ज़ियारत की नीय्यत से आप(स) की क़ब्रे मुबारक पर चले गए उन को काफ़िर क़रार देदिया, चाहे वो बड़े बड़े सहाबा, ताबईन या मुज्तहिदीने किराम ही क्यों ना हों?।

क्या ये सब कुछ इस लिए है कि यज़ीद ने अस्हाबे पैग़ंबर (स) का ख़ून बहाया, उन की इज़्ज़त-ओ-आबरू को ताराज किया और उन की नामूस को ज़ालिमों के लिए मुबाह कर दिया था?

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