मुक़द्दमा
ग़दीर का नाम तो हम सभी ने सुना है। यह स्थान मक्के और मदीने के मध्य, मक्के शहर से तक़रीबन 200 किलोमीटर की दूरी पर जोहफ़े [1] के पास स्थित है। यह एक चौराहा है,यहाँ पहुँच कर विझिन्न क्षेत्रों से आये हाजी लोग एक दूसरे से अलग हो जाते हैं।उत्तर की ओर का रास्ता मदीने की तरफ़, दक्षिण की ओर का रास्ता यमन की तरफ़,पूरब की ओर का रास्ता इराक़ की तरफ़ और पश्चिम की ओर का रास्ता मिस्र की तरफ़ जाता है।
आज कल यह स्थान भले ही आकर्षण का केन्द्र न रहा हो परन्तु एक दिन यही स्थान इस्लामिक इतिहास की एक महत्वपूर्ण धटना का साभी था। और यह घटना 18 ज़िलहिज्जा सन् 10 हिजरी की है, जिस दिन हजरत अली अलैहिस्सलाम को रसूले अकरम (स.) के उत्तराधिकारी के पद पर नियुक्त किया गया।
पूर्व में तो विभिन्न खलिफ़ाओं ने सियासत के अन्तर्गत इतिहास की इस महत्वपूर्ण घटना को मिटाने का प्रयास किया और आज कुछ मुतास्सिब लोग इसको मिटाने या कम रंग करने की कोशिशे कर रहे हैं। लेकिन यह घटना इतिहास,हदीस और अर्बी साहित्य में इतनी रच बस गई है कि इसको मिटाया या छुपाया नही जा सकता।
आप इस किताबचे में ग़दीर के सम्बन्ध में ऐसी ऐसी सनदें और हवाले पायेंगे कि उन को पढ़ कर अचम्भित रह जायेंगे। जिस घटना के लिए असंख्य दलीलें और सनदें हो भला उसको किस प्रकार भुलाया या छुपाया जा सकता है ?
उम्मीद है कि यह तर्क पूर्ण विवेचना व समस्त सनदें जो अहले सुन्नत की किताबों से ली गई हैं मुसलमानों के विभिन्न समुदायों को एक दूसरे से क़रीब करने का साधन बनेगी और पूर्व में लोग जिन वास्तविक्ताओं से सादगी के साथ गुज़र गये हैं, वह इस समय सबके आकर्षण का केन्द्र बनेंगी विशेष रूप से जवान नस्ल की।
हदीसे ग़दीर
हदीसे ग़दीर अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली अलैहिस्सलाम की बिला फ़स्ल विलायत व खिलाफ़त के लिए एक रौशन दलील है और मुहक़्क़ेक़ीन इसको बहुत अधिक महत्व देते हैं।लेकिन अफ़सोस है कि जो लोग आप की विलायत से बचना चाहते हैं वह कभी तो इस हदीस की सनद को निराधार बताते हैं और कभी इस की सनद को सही मानते हैं परन्तु इसकी दलालत से मना करते हैं।
इस हदीस की हक़ीक़त को प्रत्यक्ष करने के लिए ज़रूरी है कि सनद और दलालत के बारे में विशवसनीय किताबों के माध्यम से बात की जाये।
ग़दीरे ख़ुम का दृश्य
सन् दस हिजरी के आखिरी माह (ज़िलहिज्जा) में पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने अपने जीवन का अन्तिम हज किया और मुसलमानों ने रसूले अकरम (स.) से इस्लामी हज के तरीक़े को सीखा। जब हज समाप्त हुआ तो रसूले अकरम (स.) ने मदीने जाने के उद्देश्य से मक्के को छोड़ने का इरादा किया और क़ाफ़िले को चलने का आदेश दिया। जब यह क़ाफ़िला जोहफ़े [2] से तीन मील के फ़ासले पर राबिग़ [3] नामी क्षेत्र में पहुँचा तो ग़दीरे खुम नामी स्थान पर जिब्राइले अमीन “वही” लेकर नाज़िल हुए और रसूले अकरम को इस आयत के द्वारा सम्बोधित किया ।“ या अय्युहर रसूलु बल्लिग़ मा उनज़िला इलैका मिन रब्बिक व इन लम् तफ़अल फ़मा बल्लग़ता रिसालतहु वल्लाहु यअसिमुका मिन अन्नास”[4]
ऐ रसूल उस संदेश को पहुँचा दीजिये जो आपके परवर दिगार की ओर से आप पर नाज़िल हो चुका है और अगर आप ने ऐसा न किया तो ऐसा है जैसे आपने रिसालत का कोई काम अंजाम नही दिया। अल्लाह, लोगों के शर से आप की रक्षा करेगा।
आयत के अंदाज़ से मालूम होता है कि अल्लाह ने एक ऐसा महान कार्य रसूल अकरम (स.) के सुपुर्द किया है जो पूरी रिसालत के पहुँचाने के बराबर और दुश्मनो की मायूसी का कारण भी है। इससे महान कार्य और क्या हो सकता है कि एक लाख से ज़्यादा लोगों के सामने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को अपने खलीफ़ा व उत्तराधिकारी के पद पर नियुकित करें ?
अतः क़ाफ़िले को रूकने का आदेश दिया गया। इस आदेश को सुन कर जो लोग क़ाफ़िले से आगे चल रहे थे रुक गये और जो पीछे रह गये थे वह भी आकर क़ाफ़िले से मिल गये। ज़ोहर का वक़्त था और गर्मी अपने शबाब पर थी। हालत यह थी कि कुछ लोगों ने अपनी अबा(चादर) का एक हिस्सा सिर पर और दूसरा हिस्सा पैरों के नीचे दबा रखा था। पैगम्बर के लिए एक दरख्त पर चादर डाल कर सायबान तैयार किया गया। पैगम्बर ऊँटो के कजावों को जमा करके बनाये गये मिम्बर पर खड़े हुए और ऊँची आवाज़ मे एक खुत्बा (भाषण) दिया जिसका साराँश यह है।
ग़दीरे खुम में पैगम्बर का खुत्बा
“हम्दो सना (हर प्रकार की प्रशंसा) अल्लाह की ज़ात से समबन्धित है। हम उस पर ईमान रखते हैं और उसी पर भरौसा करते है तथा उसी से सहायता चाहते हैं। हम बुराई, और अपने बुरे कार्यों से बचने के लिए उसके यहाँ शरण चाहते हैं। वह अल्लाह जिसके अलावा कोई दूसरा मार्ग दर्शक नही है। मैं गवाही देता हूँ कि उसके अलावा कोई माबूद नही है और मुहम्मद उसका बंदा और पैगम्बर है।हाँ! ऐ लोगो वह वक़्त क़रीब है कि मैं अल्लाह के बुलावे को स्वीकार करता हुआ तुम्हारे बीच से चला जाऊँ। उसके दरबार में तुम भी उत्तरदायी हो और मै भी। इसके बाद कहा कि मेरे बारे में तुम्हारा क्या विचार है? क्या मैनें तुम्हारे प्रति अपनी ज़िम्मेदारीयों को पूरा कर दिया है ?
यह सुन कर सभी लोगों ने रसूले अकरम (स.) की सेवाओं की पुष्टी की और कहा कि हम गवाही देते हैं कि आपने अपनी ज़िम्मेदारी को पूरा किया और बहुत मेहनत की अल्लाह आपको इसका सबसे अच्छा बदला दे।
पैगम्बर ने कहा कि “क्या तुम गवाही देते हो कि इस पूरी दुनिया का माबूद एक है और मुहम्मद उसका बंदा व रसूल है और जन्नत, जहन्नम व परलोक के अमर जीवन में कोई शक नही है ?
सबने कहा कि “ सही है हम गवाही देते हैं।”
इसके बाद रसूले अकरम (स.) ने कहा कि “ऐ लोगो मैं तम्हारे मध्य दो महत्वपूर्ण चीज़े छोड़ रहा हूँ मैं देखूँगा कि तुम मेरे बाद मेरी इन दोनो यादगारों के साथ क्या सलूक करते हो।”
उस वक़्त एक इंसान खड़ा हुआ और ऊँची आवाज़ मे सवाल किया कि इन दो महत्वपूर्ण चीज़ों से क्या अभिप्रायः है ?
पैगम्बरे अकरम (स.) ने कहा कि “एक अल्लाह की किताब है जिसका एक सिरा अल्लाह की क़ुदरत में है और दूसरा सिरा तुम्हारे हाथों में और दूसरे मेरी इतरत और अहले बैत हैं अल्लाह ने मुझे खबर दी है कि यह कभी भी एक दूसरे से अलग नहीं होंगे।”
हाँ! ऐ लोगो क़ुरआन व मेरी इतरत से आगे न बढ़ना और दोनो के आदेशों के पालन में किसी प्रकार की कमी न करना, वरना हलाक हो जाओगे।
उस वक़्त हज़रत अली अलैहिस्सलाम का हाथ पकड़ इतना ऊँचा उठाया कि दोनो की बग़ल की सफ़ैदी सबको नज़र आने लगी और सब लोगों को हज़रत अली (अ.) से परिचित कराया।
इसके बाद कहा “मोमेनीन पर स्वयं उनसे ज़्यादा कौन अधिकार रखता है ?
सब ने कहा कि “अल्लाह और उसका रसूल अधिक जानते हैं।”
पैगम्बर स. ने कहा कि-
“अल्लाह मेरा मौला है और मैं मोमेनीन का मौला हूँ और मैं उनके ऊपर उनसे ज़्यादा अधिकार रखता हूँ, हाँ! ऐ लोगो “मनकुन्तु मौलाहु फ़हाज़ा अलीयुन मौलाहु [5] अल्लाहुम्मा वालि मन वालाहु व आदि मन आदाहु व अहिब्बा मन अहिब्बहु व अबग़िज़ मन अबग़ज़हु व अनसुर मन नसरहु व अख़ज़ुल मन ख़ज़लहु व अदरिल हक़्क़ा मआहु हैसो दारा। ”
जिस जिस का मैं मौला हूँ उस उस के यह अली मौला हैं। ऐ अल्लाह उसको दोस्त रख जो अली को दोस्त रखे और उसको दुश्मन रख जो अली को दुश्मन रखे, उस से मुहब्बत कर जो अली से मुहब्बत करे और उस पर ग़ज़बनाक (परकोपित) हो जो अली पर ग़ज़बनाक हो, उसकी मदद कर जो अली की मदद करे और उसको रुसवा कर जो अली को रुसवा करे और हक़ को उधर मोड़ दे जिधर अली मुड़ें।” [6] ऊपर लिखे खुत्बे[7]को अगर इंसाफ़ के साथ देखा जाये तो जगह जगह पर हज़रत अली अलैहिस्सलाम की इमामत की दलीलें मौजूद हैं।(हम इस कथन की व्याख्या का वर्णन आगे करेंगे।)
हदीसे ग़दीर की अमरता
अल्लाह का यह हकीमाना इरादा है कि ग़दीर की ऐतिहासिक घटना एक ज़िन्दा हक़ीक़त के रूप मे हर ज़माने में बाक़ी रहे, लोगों के दिल इसकी ओर आकर्षित होते रहें और इस्लामी लेखक तफ़्सीर, हदीस, कलाम और इतिहास की किताबों में इसके बारे में हर ज़माने में लिखते रहें, मज़हबी वक्ता इसको वाज़ो नसीहत की मजालिस में हज़रत अली अलैहिस्सलाम के अविस्मर्णीय फ़ज़ायल की सूरत में बयान करते रहें। और केवल वक्ता ही नही बल्कि शाईर भी अपने साहित्यिक भाव, चिंतन और इखलास के द्वारा इस घटना को चार चाँद लगायें और विभिन्न भाषाओं में अलग अलग तरीक़ों से बेहतरीन शेर कह कर अपनी यादगार के तौर पर छोड़ें।(मरहूम अल्लामा अमीनी ने विभिन्न सदियों में ग़दीर के बारे में कहे गये महत्वपूर्ण शेरों को शाइर के जीवन के हालात के साथ ईस्लाम की प्रसिद्ध किताबों से नक़्ल करके अपनी किताब “अल ग़दीर” में जो कि 11 जिल्दों पर आधारित है, बयान किया है।)दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि दुनिया में ऐसी ऐतिहासिक घटनायें बहुत कम हैं जो ग़दीर की तरह मुहद्दिसों, मुफ़स्सिरों, मुतकल्लिमों, फलसफ़ियों, खतीबों, शाइरों, इतिहासकारों और सीरत लिखने वालों की तवज्जौह का केन्द्र बनी हों।
इस हदीस के अमर होने का एक कारण यह है कि इस घटना से सम्बन्धित दो आयतें क़ुराने करीम में मौजूद हैं।[8] अतः जब तक क़ुरआन बाक़ी रहेगा यह ऐतिहासिक घटना भी ज़िन्दा रहेगी।
यह बात भी दिलचस्प है कि अबुरिहाने बैरूनी ने अपनी किताब आसारूल बाक़िया में ईदे ग़दीर को उन ईदों में गिना है जिनका आयोजन सभी मुसलमान किया करते थे और खुशिया मनातें थे।[11]
सिर्फ़ इब्ने खलकान और अबुरिहाने बैरूनी ने ही इस दिन को ईद का दिन नही कहा है बल्कि अहले सुन्नत के प्रसिद्ध आलिम सआलबी ने भी शबे ग़दीर को मुस्लिम समाज के मध्य मशहूर मानी जाने वाली शबों में गिना है।[12]
इस इस्लामी ईद की बुनियाद पैगम्बरे इस्लाम (स.) के ज़माने में ही पड़ गई थी। क्योंकि आप ने इस दिन तमाम मुहाजिर, अंसार और अपनी पत्नियों को आदेश दिया था, कि हज़रत अली (अ.) के पास जा कर उन को इमामत व विलायत के सम्बन्ध में मुबारक बाद दें।
ज़ैद इब्ने अरक़म कहते हैं कि अबु बकर, उमर उस्मान, तलहा व ज़ुबैर मुहाजेरीन में से वह पहले इंसान थे जिन्होनें हज़रत अली (अ.) के हाथ पर बैअत कर के मुबारकबाद दी। बैअत व मुबारक बादी का यह सिलसिला मग़रिब तक चलता रहा।[13]
इस हदीस का वर्णन पैग़म्बर (स.) के एक सौ दस सहाबियों ने किया है।
इस ऐतिहासिक घटना के महत्व के लिए इतना ही काफ़ी है कि इसका वर्णन पैगम्बरे अकरम (स.) के 110 सहाबियों ने किया है।[14]लेकिन इस वाक्य का अर्थ यह नही है कि सहाबियों की इतनी बड़ी सँख्यां में से केवल इन्हीं सहाबियों ने इस घटना का वर्णन किया है। बल्कि इससे यह अभिप्रायः है कि अहले सुन्नत के उलमा ने जो किताबें लिखी हैं उनमें सिर्फ़ इन्हीं 110 सहाबियों का वर्णन मिलता है।
दूसरी सदी में जिसको ताबेआन का दौर कहा गया है इनमें से 89 इंसानों ने इस हदीस का वर्णन किया है।
बाद की सदीयों में भी अहले सुन्नत के 360 विद्वानो ने इस हदीस का उल्लेख अपनी किताबों में किया है तथा विद्वानों के एक बड़े गिरोह ने इस हदीस की सनद को सही स्वीकार किया है।
विद्वानों के इस गिरोह ने केवल इस हदीस का उल्लेख ही नही किया, बल्कि इस हदीस की सनद और दलालत के सम्बन्ध में विशेष रूप से किताबें भी लिखी हैं।
अजीब बात यह है कि इस्लामी समाज के सबसे बड़े इतिहासकार तबरी ने “अल विलायतु फ़ी तुरुक़ि हदीसिल ग़दीर” नामी किताब लिखी और पैगम्बर (स.) की इस हदीस का 75 प्रकार से उल्लेख किया।
इब्ने उक़दह कूफ़ी ने अपने रिसाले “विलाय़त” में इस हदीस का उल्लेख 105 व्यक्तियों के माध्यम से किया है।
अबु बकर मुहम्मद बिन उमर बग़दादी ने जो कि जमआनी के नाम से मशहूर हैं, इस हदीस का वर्णन 25 तरीक़ों से किया है।
इब्ने हंबल शेबानी
इब्ने हज्रे अस्क़लानी
जज़री शाफ़ेई
अबु सईदे सजिस्तानी
अमीर मुहम्मद यमनी
निसाई
अबुल आला हमदानी
अबुल इरफ़ान हब्बान
शिया विद्वानों ने भी इस ऐतिहासिक घटना के बारे में अहले सुन्नत की मुख्य किताबों के हवालों के साथ बहुत सी महत्वपूर्ण किताबें लिखी हैं। इनमें से एक विस्तृत किताब “अलग़दीर” है जो इस्लामी समाज के मशहूर लेखक स्वर्गीय अल्लामा आयतुल्लाह अमीनी की लेखनी का चमत्कार है। (इस लेख को लिखने के लिए इस किताब से बहुत अधिक सहायता ली गई है।)
परिणाम स्वरूप पैगम्बरे इस्लाम (स.) ने अमीरूल मोमेनीन अली (अ.) को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने के बाद कहा “ कि ऐ लोगो अभी जिब्राईल मुझ पर नाज़िल हुए और यह आयत लाये हैं कि (( अलयौम अकमलतु लकुम दीनाकुम व अतमम्तु अलैकुम नेअमती व रज़ीतु लकुमुल इस्लामा दीना))[16] आज मैंनें तुम्हारे दीन को पूर्ण कर दिया और तुम पर अपनी नेअमतों को भी तमाम किया और तुम्हारे लिए दीन इस्लाम को पसंद किया।”
उस वक़्त पैगम्बर ने तकबीर कही और कहा “ अल्लाह का शुक्र अदा करता हूँ कि उसने अपने विधान व नेअमतों को पूर्ण किया और अली (अ.) से मेरे उत्तराधिकारी के रूप में प्रसन्न हुआ।”
इसके बाद पैगम्बरे इस्लाम (स.) मिम्बर से नीचे तशरीफ़ लाये और हज़रत अली (अ.) से कहा कि “ आप खेमें (शिविर) में लशरीफ़ ले जायें ताकि इस्लाम की बुज़ुर्ग व्यक्ति और सरदार आपकी बैअत कर के आप को मुबारक बाद दे सकें। ”
सबसे पहले शेख़ैन (अबु बकर व उमर) ने अली अलैहिस्सलाम को को मुबारक बाद दी और उनको अपना मौला स्वीकार किया।
हस्सान बिन साबित ने मौक़े से फ़ायदा उठाया और पैगम्बरे इस्लाम (स.) से आज्ञा प्राप्त कर के एक क़सीदा (पद्य की वह पंक्तियाँ जो किसी की प्रशंसा में कही गई हों) कहा और पैगम्बरे अकरम (स.) के सामने उसको पढ़ा। यहाँ पर हम उस क़सीदे के केवल दो महत्वपूर्ण शेरों का ही वर्णन कर रहें हैं।
फ़ाक़ाला लहु क़ुम या अली फ़इन्ननी ।
रज़ीतुका मिन बअदी इमामन व हादीयन।।
फ़मन कुन्तु मौलाहु फ़हाज़ा वलीय्युहु।
फ़कूनू लहु अतबाआ सिदक़िन मवालियन।।
अर्थात अली (अ.) से कहा कि उठो कि मैंनें आपको अपने उत्तराधिकारी और अपने बाद लोगों के मार्ग दर्शक के रूप में टुन लिया है।
जिस जिस का मैं मौला हूँ उस उस के अली मौला हैं। तुम उनको दिल से दोस्त रखते हो बस उनका अनुसरन करो।[17]
यह हदीस इमाम अली अलैहिस्सलाम के, तमाम सहाबा से श्रेष्ठ होने को सिद्ध करती है।
यहाँ तक कि अमीरूल मोमेनीन ने मजलिसे शूरा-ए-खिलाफ़त में (जो कि दूसरे खलीफ़ा के मरने के बाद बनी),[18]
उसमान की खिलाफ़त के ज़माने में और स्वयं अपनी खिलाफ़त के समय में भी इस पर विरोध प्रकट किया है।[19]
इसके अलावा हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा जैसी महान शख्सियत नें हज़रत अली अलैहिस्सलाम की श्रेष्ठता से इंकार करने वालों के सामने इसी हदीस को तर्क के रूप में प्रस्तुत किया।[20]
मौला से क्या अभिप्रायः है ?
यहाँ पर सबसे महत्वपूर्ण मसअला मौला के अर्थ की व्याख्या है। जिस की ओर से बहुत अधिक लापरवाही बरती जाती है। क्योंकि इस हदीस के बारे में जो कुछ बयान किया गया है उससे इस हदीस की सनद के सही होने के सम्बन्ध में कोई शक बाक़ी नही रह जाता। अतः बहाना बाज़ लोग इस हदीस के अर्थ व उद्देश्य में शक पैदा करने में जुट जाते हैं, विशेष रूप से मौला शब्द के अर्थ में। परन्तु वह इसमें भी सफल नही हो पाते।विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि मौला शब्द इस हदीस में बल्कि अधिकाँश स्थानों पर एक से ज़्यादा अर्थ नही देता और वह “ औलवियत ” है। क़ुरआन की बहुतसी आयतों में मौला शब्द औलवियत के अर्थ में ही प्रयोग हुआ है।
क़ुरआने करीम में मौला शब्द 18 आयतों में प्रयोग हुआ है जिनमें से 10 स्थानों पर यह शब्द अल्लाह के लिए प्रयोग हुआ है ज़ाहिर है कि अल्लाह का मौला होना उसकी औलवियत के अर्थ में है। याद रहे कि मौला शब्द बहुत कम स्थानों पर ही दोस्त के अर्थ में प्रयोग हुआ है।
इस आधार पर “मौला” के प्रथम अर्थ औला में किसी प्रकार का कोई शक नही करना चाहिए। हदीसे ग़दीर में भी “ मौला” शब्द औलवियत के अर्थ में ही प्रयोग हुआ है। इसके अलावा इस हदीस के साथ बहुत से ऐसे क़रीने मौजूद हैं जो इस बात को साबित करते हैं कि यहाँ पर मौला से अभिप्रायः औला ही है।
अगर यह भी मान लिया जाये कि अरबी भाषा में “मौला” शब्द के बहुत से अर्थ हैं, फिर भी ग़दीर की इस महान ऐतिहासिक घटना व हदीस के बारे में बहुत से ऐसे तथ्य मौजूद हैं जो हर प्रकार के संदेह को दूर कर के वास्तविक्ता को सिद्ध करते हैं।
पहली दलील
जैसा कि हमने ऊपर कहा है कि ग़दीर की ऐतिहासिक घटना के दिन रसूले अकरम (स.) के शाइर हस्सान बिन साबित ने रसूले अकरम (स.) से इजाज़ लेकर आप के वक्तव्य को काव्य के रूप में परिवर्तित किया। इस फ़सीह, बलीग़ व अर्बी भषा के रहस्यों के ज्ञाता इंसान ने “मौला” शब्द के स्थान पर इमाम व हादी शब्दों का प्रयोग किया और कहा किफ़क़ुल लहु क़ुम या अली फ़इन्ननी ।
रज़ीतुका मिन बादी इमामन व हादियन।।[21]
अर्थात पैगम्बर (स.) ने अली (अ.) से कहा कि ऐ अली उठो कि मैनें तमको अपने बाद इमाम व हादी के रूप में चुन लिया है।
ज़ाहिर है कि शाइर ने मौला शब्द को जिसे पैगम्बर (स.) ने अपने वक्तव्य में प्रयोग किया था, इमाम, पेशवा, हादी के अलावा किसी अन्य अर्थ में प्रयोग नही किया है। जबकि कि यह शाइर अरब के फ़सीह व अहले लुग़त[22] व्यक्तियों में गिना जाता है।
और अरब के केवल इस महान शाइर हस्सान ने ही मौला शब्द को इमामत के अर्थ में प्रयोग नही किया है बल्कि उसके बाद आने वाले तमाम इस्लामी शाइरों ने जिनमें से अधिकाँश अरब के मशहूर शाइर व साहित्यकार माने जाते हैं और इनमें से कुछ को तो अरबी भषा का उस्ताद भी समझे जाते हैं उन्होंने भी मौला शब्द से वही अर्थ लिया हैं जो हस्सान ने लिया था। अर्थात इमामत।
दूसरी दलील
हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने जो शेर मुआविया को लिखे उनमें हदीसे ग़दीर के बारे में यह कहा कि
व औजबा ली विलायतहु अलैकुम।
रसूलुल्लाहि यौमा ग़दीरि खुम्मिन।।[23]
अर्थात अल्लाह के पैगम्बर (स.) ने मेरी विलायत को तुम्हारे ऊपर ग़दीर के दिन वाजिब किया है।
इमाम से बेहतर कौन शख्स है जो हमारे लिए इस हदीस की व्याख्या कर सके और बताये कि ग़दीर के दिन अल्लाह के पैगम्बर (स.) ने विलायत को किस अर्थ में प्रयोग किया है ? क्या यह व्याख्या यह नही बताती कि ग़दीर की घटना में मौजूद समस्त लोगों ने (मौला शब्द से) इमामत के अतिरिक्त कोई अन्य अर्थ नही समझा था ?
तीसरी दलील
पैगम्बर (स.) ने मनकुन्तु मौलाहु कहने से पहले यह सवाल किया कि “ आलस्तु औवला बिकुम मिन अनफ़ुसिकुम ?” क्या मैं तुम्हारे ऊपर तुम से ज़्यादा अधिकार नही रखता हूँ ?पैगम्बर के इस सवाल में लफ़्ज़े औवला बि नफ़सिन का प्रयोग हुआ है। पहले सब लोगों से अपनी औलवियत का इक़रार लिया और उसके बाद निरन्तर कहा कि “ मन कुन्तु मौलाहु फ़ाहाज़ा अलीयुन मौलाहु ” अर्थात जिस जिस का मैं मौला हूँ उस उस के अली मौला हैं।
इन दो वाक्यों को आपस में मिलाने से पैग़म्बरे इस्लाम (स.) क्या उद्देश्य है ? क्या इसके अलावा और कोई उद्देश्य हो सकता है कि कुरआन के अनुसार जो स्थान पैगम्बरे अकरम (स.) को प्राप्त है वही अली (अ.) के लिए भी साबित करें ? सिर्फ़ इस फ़र्क़ के साथ कि वह पैगम्बर हैं और अली इमाम, नतीजे में हदीसे ग़दीर का अर्थ यह हों जाता हैं कि जिस जिस से मुझे औलवियत की निस्बत है उस उस से अली (अ.) को भी औलवियत की निस्बत है।[24] अगर पैगम्बर (स.) का इसके अलावा और कोई उद्देश्य होता तो लोगों से अपनी औलवियत का इक़रार लेने की ज़रूरत नही थी। यह इंसाफ़ से कितनी गिरी हुई बात है कि इंसान पैगम्बर इस्लाम (स.) के इस पैग़ाम को नज़र अंदाज़ करे दे और हज़रत अली (अ.) की विलायत की ओर से आँखें बन्द कर के ग़ुज़र जाये।
चौथी दलील
पैगम्बरे इस्लाम (स.) ने अपने कलाम के आग़ाज़ में लोगों से इस्लाम की तीन आधार भूत मान्यताओं का इक़रार लिया और कहा “ आलस्तुम तश्हदूना अन ला इलाहा इल्ला अल्लाह व अन्ना मुहम्मदन अब्दुहु व रसूलुहु व अन्नल जन्नता हक़्क़ुन व अन्नारा हक़्क़ुन ? ” अर्थात क्या तुम गवाही देते हो कि अल्लाह के अलावा और कोई माअबूद नही है, मुहम्मद उसके बंदे व रसूल हैं और जन्नत व दोज़ख़ हक़ हैं ?इन सब का इक़रार कराने से क्या उद्देश्य था ? क्या इसके अलावा कोई दूसरा उद्देश्य था कि वह अली (अ.) के लिए जिस स्थान को साबित करना चाहते थे उसके लिए लोगों के ज़हन को तैयार कर रहे थे ताकि वह अच्छी तरह समझलें कि विलायत व खिलाफ़त का इक़रार दीन के उन तीनो उसूलों के समान है जिनका तुम सब इक़रार करते हो ? अगर “मौला” का अर्थ दोस्त या मददगार मान लें तो इन वाक्यों का आपसी ताल मेल ख़त्म हो जायेगा और कलाम की कोई अहमियत नही रह जायेगी। क्या ऐसा नही है ?
पाँचवी दलील
पैगम्बरे इस्लाम (स.) ने अपने ख़ुत्बे (भाषण) के शुरू में अपनी रेहलत (मृत्यु) के बारे में ख़बर देते हुए कहा हैं कि “ इन्नी औशकु अन उदआ फ़उजीबा” अर्थात क़रीब है कि मुझे बुलाया जाये और मैं चला जाऊँ।[25]यह जुमला इस बात की ओर संकेत कर रहा है कि पैगम्बर यह चाहते हैं कि अपने बाद के लिए कोई इंतेज़ाम करें और अपनी रेहलत (मृत्यु) के बाद पैदा होने वाले ख़ाली स्थान पर किसी को नियुक्त करें। जो रसूले अकरम (स.) की रेहलत के बाद तमाम कार्यों की बाग डोर अपने हाथों मे संभाल ले।
जब भी हम विलायत की तफ़्सीर खिलाफ़त के अलावा किसी दूसरी चीज़ से करेंगे तो पैगम्बरे अकरम (स.) के जुमलों में पाया जाने वाला मनतक़ी राब्त टूट जायेगा। जबकि वह सबसे ज़्यादा फ़सीह व बलीग़ कलाम करने वाले हैं। मसल-ए- विलायत के लिए इससे रौशनतर क़रीना और क्या हो सकता है।
छटी दलील
पैगम्बरे अकरम (स.) ने मनकुन्तु मौलाहु....... जुमले के बाद कहा कि “ अल्लाहु अकबरु अला इकमालिद्दीन व इतमामि अन्नेअमत व रज़िया रब्बी बिरिसालति व अल विलायति लिअलीयिन मिन बअदी ”अगर मौला से अभिप्रायः दोस्ती या मुसलमानों की मदद है तो फिर अली (अ.) की दोस्ती, मवद्दत व मदद से दीन किस तरह कामिल हो गया और उसकी नेअमतें किस तरह पूरी हो गईँ ? यह बात सबसे रौशन है कि आप ने कहा कि अल्लाह मेरी रिसालत और मेरे बाद अली (अ.) की विलायत से राज़ी हो गया।[26] क्या यह सब खिलाफ़त के अर्थ पर गवाही नही है ?
सातवी दलील
इससे बढ़कर और क्या गवाही हो सकती है कि शेखैन (अबु बकर व उमर) और रसूले अकरम (स.) के असहाब ने हज़रत के मिम्बर से नीचे आने के बाद अली (अ.) को मुबारक बाद पेश की और मुबारकबादी का यह सिलसिला मग़रिब तक चलता रहा शैखैन (अबु बकर व उमर) वह पहले लोग थे जिन्होंने इमाम को इन शब्दों में मुबारक बाद दी “ हनीयन लका या अली इबनि अबितालिब असबहता व अमसैता मौलाया व मौला कुल्लि मुमिनिन व मुमिनतिन”[27]अर्थात ऐ अली इब्ने अबितालिब आपको मुबारक हो कि सुबह शाम मेरे और हर मोमिन मर्द और औरत के मौला हो गये।
अली (अ.) ने उस दिन ऐसा कौनसा स्थान प्राप्त किया था जिस पर इन लोगों ने मुबारक बादी दी? क्या मक़ामे खिलाफ़त और उम्मत की रहबरी (जिसका उस दिन तक रसमी तौर पर ऐलान नही हुआ था) इस मुबारकबादी की वजह नही थी ? मुहब्बत और दोस्ती कोई नई बात नही थी।
आठवी दलील
अगर इससे हज़रत अली (अ.) की दोस्ती मुराद थी तो इसके लिए लाज़िम नही था कि झुलसा देने वाली गर्मी में इस मसअले को बयान किया जाता, एक लाख से ज़्यादा लोगो पर आधारित चलते हुए क़ाफ़िले को रोका जाता, और तेज़ धूप में लोगों को चटयल मैदान के तपते हुए पत्थरों पर बैठाकर एक विस्तृत ख़ुत्बा बयान किया जाता।
क्या क़ुरआन ने तमाम मोमिनों को एक दूसरे का भाई नही कहा है ? जैसा कि इरशाद होता है “इन्नमा अल मुमिनूना इख़वातुन।”[28] मोमिन आपस में एक दूसरे के भाई हैं।
क्या क़ुरआन ने अन्य आयतों में मोमेनीन को एक दूसरे के दोस्त के रूप में परिचिच नही कराया है ? और अली अलैहिस्सलाम भी उसी मोमिन समाज के एक सदस्य थे। अतः उनकी दोस्ती के ऐलान की क्या ज़रूरत थी? और अगर यह मान भी लिया जाये कि इस ऐलान में दोस्ती ही मद्दे नज़र थी, तो फ़िर इसके लिए अनुकूल परिस्थिति में इन इन्तेज़ामात की ज़रूरत नही थी, यह काम मदीने में भी किया जा सकता था। यक़ीनन किसी महत्वपूर्ण मसअला का वर्णन करना था जिसके लिए इस विशेष प्रबंध की ज़रूरत थी। इस तरह के इन्तज़ामात पैगम्बर की ज़िन्दगी में न कभी पहले देखे गये और न ही इस घटना के बाद देखने को मिले।
अब आप फ़ैसला करें
अगर इन रौशन क़राइन की मौजूदगी में भी कोई शक करे कि पैगम्बर अकरम (स.) का मक़सद इमामत व खिलाफ़त नही था तो क्या यह ताज्जुब वाली बात नही है ? वह लोग जो इसमें शक करते हैं अपने दिल को किस तरह संतुष्ट करेंगे और महशर के दिन अल्लाह को क्या जवाब देंगे ?यक़ीनन अगर तमाम मुसलमान ताअस्सुब को छोड़ कर हदीसे ग़दीर पर तहक़ीक़ करें तो दिल खवाह नतीजों पर पहुँचेंगे। जहाँ यह काम मुसलमानों के विभिन्न फ़िर्क़ों में एकता का सबब बनेगा वहीँ इस से इस्लामी समाज एक नयी शक्ल हासिल कर लेगा।
तीन महत्वपूर्ण हदीसें
इस लेख के अन्त में इन तीन महत्वपूर्ण हदीसों पर भी ध्यान दीजियेगा।1- हक़ किसके साथ है ?
पैगम्बरे इस्लाम (स.) की पत्नियाँ उम्मे सलमा और आइशा कहती हैं कि हमने पैगम्बरे इस्लाम (स.) से सुना है कि उन्हो कहा “अलीयुन मअल हक़्क़ि व हक़्क़ु माअ अलीयिन लन यफ़तरिक़ा हत्ता यरदा अलय्यल हौज़”
अनुवाद– अली हक़ के साथ है और हक़ अली के साथ है। और यह हर गिज़ एक दूसरे से जुदा नही हो सकते जब तक होज़े कौसर पर मेरे पास न पहुँच जाये।
यह हदीस अहले सुन्नत की बहुत सी मशहूर किताबों में मौजूद है। अल्लामा अमीनी ने इन किताबों का ज़िक्र अलग़दीर की तीसरी जिल्द में किया है।[29]
अहले सुन्नत के मशहूर मुफ़स्सिर फ़ख़रे राज़ी ने तफ़सीरे कबीर में सूरए हम्द की तफ़सीर के अन्तर्गत लिखा है कि “हज़रत अली अलैहिस्सलाम बिस्मिल्लाह को बलन्द आवाज़ से पढ़ते थे और यह बात तवातुर से साबित है कि जो दीन में अली की इक़्तदा करता है वह हिदायत याफ़्ता है। इसकी दलील पैगम्बर (स.) की यह हदीस है कि आपने कहा “अल्लाहुम्मा अदरिल हक़्क़ा मअ अलीयिन हैसु दार।” अनुवाद – ऐ अल्लाह तू हक़ को उधर मोड़ दे जिधर अली मुड़े।[30]
यह हदीस काबिले तवज्जोह है जो यह कह रही है कि अली की ज़ात हक़ का मरकज़ (केन्द्र बिन्दु) है
पैगम्बरे अकरम (स.) के असहाब के एक मशहूर गिरोह ने इस हदीस को पैगम्बर (स.) नक़्ल किया है।
“ अख़ा रसूलुल्लाहि (स.) बैना असहाबिहि फ़अख़ा बैना अबिबक्र व उमर व फ़ुलानुन व फ़ुलानुन फ़जआ अली (रज़ियाल्लहु अन्हु) फ़क़ाला अख़ीता बैना असहाबिक व लम तुवाख़ बैनी व बैना अहद ? फ़क़ाला रसूलुल्लाहि (स.) अन्ता अख़ी फ़ी अद्दुनिया वल आख़िरति।”
अनुवाद- “ पैगम्बर (स.) ने अपने असहाब के बीच भाई का रिश्ता स्थापित किया अबुबकर को उमर का भाई बनाया और इसी तरह सबको एक दूसरे का भाई बनाया। उसी वक़्त हज़रत अली अलैहिस्सलाम हज़रत की ख़िदमत में तशरीफ़ लाये और अर्ज़ किया कि आपने सबके दरमियान बरादरी का रिश्ता स्थापित कर दिया लेकिन मुझे किसी का भाई नही बनाया। पैगम्बरे अकरम (स.) ने कहा आप दुनिया और आख़ेरत में मेरे भाई हैं।”
इसी से मिलता जुलता मज़मून अहले सुन्नत की किताबों में 49 जगहों पर ज़िक्र हुआ है।[31]
क्या हज़रत अली अलैहिस्सलाम और पैगम्बरे अकरम (स.) के दरमियान बरादरी का रिश्ता इस बात की दलील नही है कि वह उम्मत में सबसे अफ़ज़लो आला हैं ? क्या अफ़ज़ल के होते हुए मफ़ज़ूल के पास जाना चाहिए ?
अबुज़र ने खाना-ए-काबा के दर को पकड़ कर कहा कि जो मुझे जानता है, वह जानता है और जो नही जानता वह जान ले कि मैं अबुज़र हूँ, मैंने पैगम्बरे अकरम (स.) से सुना है कि उन्होनें कहा “ मसलु अहलुबैती फ़ी कुम मसलु सफ़ीनति नूह मन रकबहा नजा व मन तख़ल्लफ़ा अन्हा ग़रक़ा।”
“तुम्हारे दरमियान मेरे अहले बैत की मिसाल किश्ती-ए-नूह जैसी हैं जो इस पर सवार होगा वह निजात पायेगा और जो इससे रूगरदानी करेगा वह हलाक होगा।[32]
जिस दिन तूफ़ाने नूह ने ज़मीन को अपनी गिरफ़्त में लिया था उस दिन नूह अलैहिस्सलाम की किश्ती के अलावा निजात का कोई दूसरा ज़रिया नही था। यहाँ तक कि वह ऊँचा पहाड़ भी जिसकी चौटी पर नूह (अ.) का बेटा बैठा हुआ था उसको निजात न दे सका।
क्या पैगम्बर के फ़रमान के मुताबिक़ उनके बाद अहले बैत अलैहिमुस्सलाम के दामन से वाबस्ता होने के अलावा निजात का कोई दूसरा रास्ता है ?
[1] एक स्थान का नाम
[2] यह जगह अहराम के मीक़ात की है और माज़ी में यहाँ से इराक़ मिस्र और मदीने के रास्ते जुदा हो जाते थे।
[3] राबिग अब भी मक्के और मदीने के बीच में है।
[4] सूरए मायदा आयत न.67
[5] पैगम्बर ने इतमिनान के लिए इस जुम्ले को तीन बार कहा ताकि बाद मे कोई मुग़ालता न हो।
[6] यह पूरी हदीसे ग़दीर या फ़क़त इसका पहला हिस्सा या प़क़त दूसरा हिस्सा इन मुसनदों में आया है। क-मुसनद ऊब्ने हंबल जिल्द 1 पेज न. 256 ख- तारीखे दमिश्क़ जिल्द42 पेज न. 207, 208, 448 ग- खसाइसे निसाई पेज न. 181 घ- अल मोजमुल कबीर जिल्द 17 पेज न. 39 ङ- सुनने तिरमीज़ी जिल्द 5 पेज न. 633 च- अल मुसतदरक अलल सहीहैन जिल्द 13 पेज न. 135 छ- अल मोजमुल औसत जिल्द 6 पेज न. 95 ज- मुसनदे अबी यअली जिल्द 1 पेज न. 280 अल महासिन वल मसावी पेज न. 41 झ- मनाक़िबे खवारज़मी पेज न. 104 व दूसरी किताबें।
[7] इस खुत्बे को अहले सुन्नत के बहुत से मशहूर उलमा ने अपनी किताबों में ज़िक्र किया है। जैसे क- मुसनदे अहमद जिल्द 1 पेज 84,88,118,119,152,332,281,331 व 370 ख- सुनने इब्ने माजह जिल्द 1 पेज न. 55 व 58 ग- अल मुस्तदरक अलल सहीहैन हाकिम नेशापुरी जिल्द 3 पेज न. 118 व 613 घ- सुनने तिरमीज़ी जिल्द 5 पेज न. 633 ङ- फ़तहुलबारी जिल्द 79 पेज न. 74 च- तारीख़े ख़तीबे बग़दादी जिल्द 8 पेज न.290 छ-तारीखुल खुलफ़ा व सयूती 114 व दूसरी किताबें।
[8] सूरए माइदह आयत 3व 67
[9] वफ़ायातुल आयान 1/60
[10] वफ़ायातुल आयान 2/223
[11] तरजमा आसारूल बाक़िया पेज 395 व अलग़दीर 1/267
[12] समारूल क़ुलूब511
[13] उमर इब्ने खत्ताब की मुबारक बादी का वाक़िआ अहले सुन्नत की बहुतसी किताबों में ज़िक्र हुआ है। इनमें से खास खास यह हैं-क-मुसनद इब्ने हंबल जिल्द6 पेज न.401 ख-अलबिदाया वन निहाया जिल्द 5 पेज न.209 ग-अलफ़सूलुल मुहिम्माह इब्ने सब्बाग़ पेज न.40 घ- फराइदुस् सिमतैन जिल्द 1 पेज न.71 इसी तरह अबु बकर उमर उस्मान तलहा व ज़ुबैर की मुबारक बादी का माजरा बहुत सी दूसरी किताबों में बयान हुआ है। जैसे मनाक़िबे अली इब्ने अबी तालिब तालीफ़ अहमद बिन मुहम्मद तबरी अल ग़दीर जिल्द 1 पेज न. 270)
[14] इस अहम सनद का ज़िक्र एक दूसरी जगह पर करेंगे।
[15] सनदों का यह मजमुआ अलग़दीर की पहली जिल्द में मौजूद है जो अहले सुन्नत की मशहूर किताबों से जमा किया गया है।
[16] सूरए माइदा आयत न.3
[17] हस्सान के अशआर बहुत सी किताबों में नक़्ल हुए हैं इनमें से कुछ यह हैं क- मनाक़िबे खवारज़मी पेज न.135 ख-मक़तलुल हुसैन खवारज़मी जिल्द 1पेज़ न.47 ग- फ़राइदुस्समतैन जिल्द1 पेज़ न. 73 व 74 घ-अन्नूरूल मुशतअल पेज न.56 ङ-अलमनाक़िबे कौसर जिल्द 1 पेज न. 118 व 362.
[18] यह एहतेजाज जिसको इस्तलाह में मुनाशेदह कहा जाता है हस्बे ज़ैल किताबों में बयान हुआ है। क-मनाक़िबे अखतब खवारज़मी हनफ़ी पेज न. 217 ख- फ़राइदुस्समतैन हमवीनी बाबे 58 ग- वद्दुर्रुन्नज़ीम इब्ने हातम शामी घ-अस्सवाएक़ुल मुहर्रेक़ा इब्ने हज्रे अस्क़लानी पेज़ न.75 ङ-अमाली इब्ने उक़दह पेज न. 7 व 212 च- शरहे नहजुल बलाग़ह इब्ने अबिल हदीद जिल्द 2 पेज न. 61 छ- अल इस्तिआब इब्ने अब्दुल बर्र जिल्द 3 पेज न. 35 ज- तफ़सीरे तबरी जिल्द 3 पेज न.417 सूरए माइदा की 55वी आयत के तहत।
[19] क- फ़राइदुस्समतैन सम्ते अव्वल बाब 58 ख-शरहे नहजुल बलाग़ह इब्ने अबिल हदीद जिल्द 1 पेज न. 362 ग-असदुलग़ाब्बा जिल्द 3पेज न.307 व जिल्द 5 पेज न.205 घ- अल असाबा इब्ने हज्रे अस्क़लानी जिल्द 2 पेज न. 408 व जिल्द 4 पेज न.80 ङ-मुसनदे अहमदजिल्द 1 पेज 84 व 88 च- अलबिदाया वन्निहाया इब्ने कसीर शामी जिल्द 5 पेज न. 210 व जिल्द 7 पेज न. 348 छ-मजमउज़्ज़वाइद हीतमी जिल्द 9 पेज न. 106 ज-ज़ख़ाइरिल उक़बा पेज न.67( अलग़दीर जिल्द 1 पेज न.163व 164.
[20] क- अस्नल मतालिब शम्सुद्दीन शाफ़ेई तिब्क़े नख़ले सखावी फ़ी ज़ौइल्लामेए जिलेद 9 पेज 256 ख-अलबदरुत्तालेअ शौकानी जिल्द 2 पेज न.297 ग- शरहे नहजुल बलाग़ह इब्ने अबिल हदीद जिल्द 2 पेज न. 273 घ- मनाक़िबे अल्लामा हनॉफ़ी पेज न. 130 ङ- बलाग़ातुन्नसा पेज न.72 च- अलअक़दुल फ़रीद जिल्द 1 पेज न.162 छ- सब्हुल अशा जिल्द 1 पेज न.259 ज-मरूजुज़्ज़हब इब्ने मसऊद शाफ़ई जिल्द 2 पेज न. 49 झ- यनाबी उल मवद्दत पेज न. 486.
[21] इन अशआर का हवाला पहले दिया जा चुका है।
[22] शब्दकोष का ज्ञाता
[23] मरहूम अल्लामा अमीनी ने अपनी किताब अलग़दीर की दूसरी जिल्द में पेज न. 25-30 पर इस शेर को दूसरे अशआर के साथ 11 शिया उलमा और 26 सुन्नी उलमा के हवाले से नक़्ल किया है।
[24] “अलस्तु औला बिकुम मिन अनफ़ुसिकुम” इस जुम्ले को अल्लामा अमीनी ने अपनी किताब अलग़दीर की पहली जिल्द के पेज न. 371 पर आलमे इस्लाम के 64 महद्देसीन व मुवर्रेख़ीन से नक़्ल किया है।
[25] अलग़दीर जिल्द 1 पेज न. 26,27,30,32,333,34,36,37,47 और 176 पर इस मतलब को अहले सुन्नत की किताबों जैसे सही तिरमिज़ी जिल्द 2 पेज न. 298, अलफ़सूलुल मुहिम्मह इब्ने सब्बाग़ पेज न. 25, अलमनाक़िब उस सलासह हाफ़िज़ अबिल फ़तूह पेज न. 19 अलबिदायह वन्निहायह इब्ने कसीर जिल्द 5 पेज न. 209 व जिल्द 7 पेज न. 347 , अस्सवाएक़ुल मुहर्रिकह पेज न. 25, मजमिउज़्ज़वाइद हीतमी जिल्द9 पेज न.165 के हवाले से बयान किया गया है।
[26] अल्लामा अमीनी ने अपनी किताब अलग़दीर की पहली जिल्द के पेज न. 43,165, 231, 232, 235 पर हदीस के इस हिस्से का हवाला इब्ने जरीर की किताब अलविलायत पेज न. 310, तफ़सीरे इब्ने कसीर जिल्द 2 पेज न. 14, तफ़सीरे दुर्रे मनसूर जिल्द 2 पेज न. 259, अलइतक़ान जिल्द 1 पेज न. 31, मिफ़ताहुन्निजाह बदख़शी पेज न. 220, मा नज़लः मिनल क़ुरआन फ़ी अलियिन अबुनईमे इस्फ़हानी, तारीखे खतीबे बग़दादी जिल्द 4 पेज न. 290, मनाक़िबे खवारज़मी पेज न. 80, अल खसाइसुल अलविया अबुल फ़तह नतनज़ी पेज न. 43, तज़किराए सिब्ते इब्ने जोज़ी पेज न. 18, फ़राइदुस्समतैन बाब 12, से दिया है।
[27] अलग़दीर जिल्द 1 पेज न. 270, 283.
[28] सूरए हुजरात आयत न. 10
[29] इस हदीस को मुहम्मद बिन अबि बक्र व अबुज़र व अबु सईद ख़ुदरी व दूसरे लोगों ने पैगम्बर (स.) से नक़्ल किया है। (अल ग़दीर जिल्द 3)
[30] तफ़सीरे कबीर जिल्द 1/205
[31] अल्लामा अमीने अपनी किताब अलग़दीर की तीसरी जिल्द में इन पचास की पचास हदीसों का ज़िक्र उनके हवालों के साथ किया है।
[32] मसतदरके हाकिम जिल्द 2/150 हैदराबाद से छपी हुई। इसके अलावा अहले सुन्नत की कम से कम तीस मशहूर किताबों में इस हदीस को नक़्ल किया गया है।
Categories:
Hindi - हिंदी
0 comments:
Post a Comment
براہ مہربانی شائستہ زبان کا استعمال کریں۔ تقریبا ہر موضوع پر 'گمنام' لوگوں کے بہت سے تبصرے موجود ہیں. اس لئےتاریخ 20-3-2015 سے ہم گمنام کمینٹنگ کو بند کر رہے ہیں. اس تاریخ سے درست ای میل اکاؤنٹس کے ضریعے آپ تبصرہ کر سکتے ہیں.جن تبصروں میں لنکس ہونگے انہیں فوراً ہٹا دیا جائے گا. اس لئے آپنے تبصروں میں لنکس شامل نہ کریں.
Please use Polite Language.
As there are many comments from 'anonymous' people on every subject. So from 20-3-2015 we are disabling 'Anonymous Commenting' option. From this date only users with valid E-mail accounts can comment. All the comments with LINKs will be removed. So please don't add links to your comments.